रविवार, 26 अप्रैल 2009

ममता


जंग बहादुर सिंह घुम्मन


वृद आश्रम में करीब पैंसठ वर्ष की एक औरत को उसका बेटा दाखिल करवा गया था । रब्ब जैसा मैनेजर उसे सहारा देता हुआ एक कमरे तक ले गया ।
“यह चारपाई-बिस्तर आपके लिए है, मां जी । आपको यहां घर जैसी सुविधा मिलेगी । फिर भी ’गर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता देना ।”
बेबस मां ने आसपास व दूसरे बिस्तरों पर अपने जैसी ही कुछ अन्य अंतिम सांस लेती औरतों को कमज़ोर निगहों से देखा । धीरे-धीरे बड़े ध्यान से चारपाई पर बैठते ही आह भरते दिल की बात कही, “बेटा, ’गर कर सकता है तो बाज़ार से मुझे एक खिलौना गुड़िया ला दे, छोटे बच्चे जितनी ।”
“ वह क्यूँ माँ जी, यह उम्र आपकी खिलौनों वाली है ?”
“ बेटे, घर पर पोती है मेरी । उसके बिना मैं रह नहीं सकती । बहुत लगाव है मुझे उससे । बेटे ने तो घर से निकल दिया । पोती की जगह खिलौने को गोदी में उठा लिया करूँगी, साथ लिटा लूंगी, दिल लगा रहेगा बेटा मेरा ।”
और यह कहते मां सुबकने लगी ।
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